Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंःब्राह्मण की बेटी-2


ब्राह्मण की बेटी

प्रकरण 2

धागे को दांत से काटकर संध्या बोली, “माँ, अभी बाबू जी तो आये नहीं।”

“जानती हूँ, मुफ्त में लोगों का इलाज करने वाले तेरे बापू को समय को तथा अपन खाने-पीने का ध्यान ही कहां रहता है? तुम्हारा साथ देने को मैं तो हूँ। तुम्हे बाबू जी की प्रतीक्षा में भूखा मरने की कोई आवश्यकता नहीं।”

बिना उत्तर दिये संध्या पूर्ववत् काम करने लगी।

चिन्तित माँ ने पूछा, “क्या सी रही है, कुछ पता तो चले?”

अनिच्छा से अस्पष्ट स्वर में संध्या बोली, “कुछ नहीं, केवल दो बटन टांक रही थी।”

“पता है, पिता कि चिन्ता करने वाली बेटी जो ठहरी, इसीलिए मैं अपनी धोती की बात ही नहीं करती। पिता की किस कमीज का बटन टूट गया है, किस धोती का पल्लू फट गया है और किस कपड़े में दाग लग गया है तथा कौन-सा जूता गन्दा हो गया है, इन सबकी चिन्ता जितनी तू करती है, वैसी तो शायद किसी दूसरी लड़की का मिलना दर्लभ ही होगा, किन्तु मैं पूछती हूँ कि अपनी बाबू जी की देखभाल के अलावा तुझे और भी कुछ करने को है या नहीं?”

हंसती हुई संध्या बोली, “माँ, बापू तो इन सब त्रूटियों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते।”

“ध्यान तो तब दें, जब उन्हें लोगों का मुफ्त इलाज करने से फूर्सत मिले। अच्छा, यह बता कि क्या दूले की पत्नी और पुत्री चली गयी है?”

“माँ, क्या उन्हें यह मुहल्ला छोड़कर जाना नहीं था?”

“किस समय गयीं, क्या लोगों को छूकर और उनकी जाति-धर्म आदि बिगाड़कर गयीं या नहीं? अरी, क्या तू उठेगी नहीं, जो फिर से सीने-परोने में जुट गयी है?”

“माँ, तुम चलो, मैं अभी आती हूँ।”

“इस बीमारी में भी तुम्हें जो ठीक लगे, वही कर। बेटी, मैं तो तुम्हें और तुम्हरे बाबु जी को कुछ कहना बेकार समझती हूँ। मैं तो इस घर से तंग आ चूकी हूँ और सास के पास काशी जाने की सोच रही हूँष।”

क्रोध से भरी जगदधात्री यह कहती हुई पीतल के कलश को उठाकर पीछे के तालाब से पानी भरने चल दी।

सिर झुकाकर संध्या हल्का-सा मुस्करा दी। माँ की बात का उसने उत्तर ही नहीं दिया। उसकी सिलाई समाप्त हो चुकी थी। अतः वह सई-धागा आदि समेटकर किसी डिब्बे में रख रही थी कि उसे पिता के आने का पता चला। घर में प्रवेश करते प्रियनाथ के एक हाथ में दवाइयों का बक्सा है और दूसरे हाथ में होम्योपैथिक दवाइयों से संबंधित पुस्तकें है। घर में घुसते ही वह उच्च स्वर में बोले, “बेटी, जरा दवा के बक्से को थामना। क्या करूं, क्या न करू, समझ में नहीं आता, मेरी तो जान ही मुसीबत में फसी है।”

झटपट उठ खड़ी हुई संध्या ने पिता के हाथ से पुस्तकें लेकर एक ओर रख दीं। बरामदे में पहेले से बिछी चटाई पर अपने पिता को बिठा दिया और पंख से हवा करने लगी। पिता के स्वस्थ हो जाने पर वह बोली, “बाबू जी, आज इतनी देर क्यों लगा दी?”

“देर, क्या कहती हो? मुझे तो नहाने-धोने के लिए भी फुर्सत नहीं मिलती। जिस रोगी के पास नहीं जाता, वही नाराज हो जाता है। असल में, रोगी का विश्वास हे कि प्रियनाथ की औषधि से ही उनका रोग निवृत्त हो सकता है। यह विश्वास भले ही सच्चा हो अथवा झूठा, किन्तु है तो सही, फिर प्रियनाथ मुखर्जी तो एक है, चार-छः तो नहीं, जो सबसे पास एक साथ जा सके। मैं अपने रोगियों से नन्द मित्रा के पास जाने को कहता हूँ। भले ही वह निपुण न हो, तो भी प्रैक्टिस करता है किन्तु सबका एक ही उत्तर होता है-मुखर्जी धन्वन्तरी को छोड़कर किसी दूसरे के पास भला कौन जाये? अब मैं उन्हें भला क्या कह सकता हूँ? मजे कि बात यह है कि नुस्खे को भी कोई रोगी याद नहीं करता। प्रतिदिन मुझे सभी रोगियों के लिए बार-बार सिर खपाना पड़ता है। नुस्खे को याद रखना भी तो आसान नहीं होता, अन्यथा सभी लोग डॉक्टर न बन जाते?”

संध्या बोली, “बाबू जी, सब ठीक है, अब कोट-कमीज उतारकर सहज को जाइये।”

“उतारता हूँ बेटी! पहले आज की बात तो सुना पट्ठे ने बिना सोचे-समझे रोगी को पल्सटिला दे डाला। प्रैक्टिस करने पर भी पट्ठे ने इस दवाई के प्रभाव के बारे में विचार नहीं किया, रोगी को मुझे संभालना पड़ा। अब पुस्तक देखकर तो इलाज नहीं किया जाता। कुछ कण्ठस्थ भी किया जाता है, कुछ बुद्धि और कुछ अनुभव से भी काम लिया जाता है। संध्या बेटी, जरा पुस्तक खोल, मैं तुझे पल्सटिला के संबंध में लिखा पढ़कर सुनाता हूँ।”

“बाबू जी, आपको सबह कण्ठस्थ है, पुस्कत खोलकर देखने की क्या आवश्यकता है? आपके खा-पी लेने के बाद ही मैं आपसे बात करूंगी।”

“कण्ठस्थ होने की तो ठीकत है, फिक भी पुस्तक दिखा तो सही।”

“नहीं, बहुत देर हो गयी है, पहले तेल-मालिश करा लो, नहीं तो माँ आकर बिगड़ेगी।” कहकर संध्या ने उचककर देखा कि माँ नहाकर आ तो नहीं रही है। इसके बाद पिता के मना करने पर भी वह प्याली में तेल लेकर उनके पैरों में लगाने लगी।

अपनी धुन में खोये मुखर्जी बाले, “बेटी, जरा रुक जाती, तो पुस्तक देख लेता।”

“वह बूढ़ा, संध्या देख लेना, वह हरगिज नहीं बचेगा और फिर मैं हरामजादे प्राण के जेल भिजवाकर रहूंगा। उस साले का काम ही मेरे रोगियों को बहकाना है। पांच के चाचा को मैंने सोच-समझकर औषधि दी और मेरे पीछे प्राण उसके पास पहुंचकर उससे बोला- देखूं, क्या औषधि दी है प्राणनाथ ने?”

संध्या ने क्रुद्ध होकर पूछा, “फिर क्या हुआ?”

प्रियनाथ अत्यन्त उतेजित स्वर में बोले, “साला, पाजी, हरामी, गधा, मेरी दी हुई दवा को गटागट पीकर बोला- यह दवा थोड़े ही है, यह तो पानी है। इससे रोग थोड़े मिटता है। अब मैं तुम्हें दवा देता हूँ, प्रियनाथ पीकर दिखाये। असल में उसने रोगी को कैस्टर आयल दे दिया था। रोगी ने मुझे ललकारा-आप प्राण की दवा पीकर तो दिखाओ?”

धबराई हुई संध्या ने पूछा, “कहीं आपने दवा पी तो नहीं ली?”

“नहीं बेटी, नहीं, किन्तु इस प्रण के कारण दोपहर तक भटकता रहा, किन्तु एक भी रोगी मेरे पास नहीं फटका। मैं इस साले पर अवश्य मुकदमा ठोकूंगा।”

क्रोध और दुःख के कारण संध्या की आँखे गीली हो गयीं। वह अपने भोले-भाले पिता को इस संसार के आघातों, उत्पातों और उपद्रवों से बचाना चाहती थी। अतः वह कोमल, मधुर और शांत स्वर में बोली, “बाबू जी, यदि रोगी आपकी दवा नहीं लेना चाहते, तो आपको इस गरमी में गली-गली भटकते फिरने की क्या आवश्यकता है? क्या आपको मालूम नहीं कि आपके घर पर न होने के कारण घर से कितने रोगी निराग लौट जाते है?”

संध्या के इस कथन में एक प्रतिशत भी सत्य नहीं था। गाँव के दीन-दुःखी घर पर दवा लेतने आते हैं, तो संध्या के पास ही आते हैं। उन्हें शायद प्रियनाथ के डॉक्टर होने की जानकारी ही नहीं होगी। हाँ, यह बात अलग है कि संध्या द्वारा दी गयी दवा अचूक सिद्ध होती है। सुनने में तो यहाँ तक आया ही रोगी प्रियनाथ के घर पर न होने की पक्की जानकारी के बाद ही संध्या के पास आते है, किन्तु पिता की प्रसन्नता के लिए उसे मिथ्या भाषण में कोई संकोच नहीं।

प्रियनाथ ने संध्या के कथन को सत्य मान लिया और परेशान होकर बोल, “हाँ, निराश लौट गये, कौन थे वे, क्या नाम था उनका, किस समय आये थे ओर किधर चले गये? क्या तुमने उन लोगों के उनका नाम-धाम कुछ पूछा था?”

अपने को लज्जित अनुभल करती हुई संध्या बोली, “बाबू जी, हमें किसी से उसका नाम-धाम पूछने की क्या आवश्यकता है? जिसे गरज हो, वह लौटकर आयेगा।”

“तुम लोगों की इस मुर्खता से तो मैं परेशान हो गया। यदि उनका नाम-धाम पूछ लिया होता, तो तुम लोगों की क्या हानि हो जाती? मैं अभी उनके पास पहुंच जाता और मेरी दवा की एक ही खुराक से उनका रोग दूर हो जाता।”

तेल मलने में लगी संध्या कुछ न बोली।

प्रियनाथ ने पूछा. “क्या वे फिर किसी समय आने को कह गये है?” “शायद शाम को आयें?”

“शायद, तुम अपनी गलती नहीं मानोगी। मान लो, बेचारे किसी कारण न आ सके और फिर विपिन के हत्थे चढ गये। बदमाश, पाजी प्राण भी तो मेरे रोगियौं को फंसाने में गला रहेता है? कहीं इन दोनों को तो टोह नहीं लग गयी? मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा है। क्या घर में मुठ्ठी-भर चना-चबेना नहीं था? उन रोगियों को खाने को देकर रोक लिया होता। जब तक मैं स्पष्ट निर्देष न दूं, किसी को तब तक कुछ सूझता ही नहीं। कोई अपनी बुद्धि से काम लेता ही नहीं है। अरे, कौन झांक रहा है, भीतर चले आओ भाई! अरे राममय! यह क्या तुम तो लंगडा रहे हो?”

प्रियनाथ के स्नेह और सम्मान से प्रभावित एक अधेड़ आयु का किसान भीतर आंगन मैं आ उपस्थित हुआ। वह बड़ी बेपरवाही से बोसा, “डाक्टर साहब, मैं ठीक हूँ, कुछ नहीं हुआ।”

“तुम अपने लंगड़ाने को कुछ होना समझते ही नहीं। संध्या, तेल मलना छोड़। यह अर्निका का केस है। राममय! तुम्हें रोग कि गंभ्भीरता को समझना चाहिए।”

प्रियनाथ के पांव दिखाने के आदेश पर राममय ने करुण दृष्टि से संध्या की और देखते हुए कहा, “दीदी, कल गिर गया था और पैर में मोच आ गयी थी।”

संध्या की और देखकर प्रियनाथ बोले, “मैंने पहली दृष्टि में बता नहीं दिया था कि यह अर्निका का मामला है। अच्छा भाई,. बताओ कि तुम गिरे कैस?”

“दरवाजे के पास के पतनाले के ऊपर वाले तख्ते को लड़कों ने हटा दिया था, मुझे इसकी जानकारी नहीं थी, अनमना-सा उसमें गिर पड़ा और मोच आ गयी।”

प्रियनाथ अनमना शब्द को मानव-स्वभाव का अंग बताकर उसकी शास्त्रीय व्याख्या करने में जुट गया और फिर पूछा, “इसके बाद क्या हुआ?”

“महाराज, फिर क्या होना था, उसी समय से दर्द से बुरी तरह कराह रहा हूँ। धरती पर बैर नहीं रखा जा रहा है।”

संध्या बोली, “बाबू जी, बहुत देर हो गयी है। रोगी को अर्निका देकर चलता करो।”

प्रियनाथ बोले, “संध्या बेटी, धीरज रख, केस पूरी तरह समझने तो दे। नुस्खा निश्चित करना क्या मजाकसहै, जल्दबाजी की तो बदमान हो जाऊंगा। हाँ, भाई, इस समय दर्द कैसा है?”

“बड़े जोर की टीस उठाती है।”

“मैंने यह नहीं पूछा। मैं जानना चाहता हूँ कि किस ढंग का दर्द है-धिसने-जैसा, मलने-जैसा, सूई चुभने-जैसा या फिर बिच्छू के काटने-जैसा? कुनकुन करता है या झनझनाता है?”

“जी हाँ महाराज, झनझन करता है?”

“फिर क्या होता है?”

“फिर क्या होता है, दर्द के मारे बुरा हाल है।”

“क्या कहा, मरे जाते हो?”

“और नहीं तो क्या? लंगड़ाकर चलता हूँ। धरती पर पांव नहीं धरा जाता। यह मरना नहीं, तो क्या है? शैतान लड़के न बात सुनते हैं और न ही मनाही मानते हैं। उस तख्ते से खेलते हैं। किसी और दिन फिर से गिर गया, तो उठ नहीं पांऊंगा। अब बहुत पूछताछ होली, मझे काफी काम है। दवा दीजिये, ताकि मैं चलूं।”

संध्या बोली, “बाबू जी, दो बूंद अर्निका दे दूं।”

हंसकर प्रियनाथ ने कहा, “नहीं, बेटी, यह अर्निका का केस नहीं है, विपिन शायद यही दवा देता। यह तो एकोनाइट का केस है। इसे चार बूंद एकोनाइट दे दो।”

आश्चर्य से दोनों आँखें फड़कर संध्या बोली, “एकोनाइट।”

“हाँ, बेटी, इसे मरने का डर है, अतः मुझे यही दवा ठीक लगती है। महात्मा हेरिंग कहते है-रोगी का इलाज करना चाहिए। मृत्यु-भय को मिटाने की दवा एकोनाइट है। विपिन हरामजादा, इस अन्तर और गरहाई को क्या समझेगा? फिर भी हरामजादा अपने को कविराज समझता-मानता है। राममय, शीशी लेकर संध्या के साथ जाओ। इस दवा को दो-दो घण्टे के बाद केवल चार बार लेना। यदि प्राण दवा दिखाने को कहे, तो उसके हाथ में शीशी बिल्कुल न देना। यह बदमाष दवा पी जायेगा और खाली बोतल में दवा के नाम अरण्डी का तेल भर देगा।”

सनू. राममय को दवा देने के लिए खड़ी हुई संध्या पिता के मुंह से पेट में मरोड उठने की शिकायत सुनकर बोली, “लगता है कि आपने सारा कैस्टर औयल पी लिया है?”

“नहीं बेटी नहीं, पहले लोटा तो पक़ड़ा।”

संध्या ने दृढ स्वर में पूछा, “बाबू जी, आप सच-सच क्यों नहीं बताते?”

“अरी छो़ड़ इस बहस को, पहले लोटा पकड़ा।” लोटा उठाकर वह घर के पिछले दरवाजे से बाहर निकल गये।

राममय ने संध्या से दवा देने का अनुरोध किया। वह बोली, “जीजी, अपने पिताजी बाली दवा रहने दो, अभी आर्निका की दो बूंदे ही दे दो।”

संध्या बोली, “तुम क्या समझते हो कि मैं पिताजी से कुछ अधिक जानती हूँ?”

लज्जित होकर राममय बोला, “मैं यह नहीं कहता, किन्तु मुखर्जी बाबू की दवा तेज होती है। घर में बेटे को कल से दस्त लगे हैं, बाबू जी की दवा के लिए मैं जाते ही उसे भेज दूंगा।”

दुःखी स्वर में “अच्छा” कहकर संध्या राममय को बगल वाले कमरे में ले गयीय़।

ठाकुरद्वार के लिए तालाब से मटका भरकर लौटी जगदधात्री ने मटके को रखकर क्रुद्ध स्वर में आवाज दी, “संध्या, अरी ओ संध्या!”

कमरे से संध्या ने उत्तर दिया, “आती हूँ माँ।”

जगदधात्री बोली, “अरी, तेरे बाबू जी अभी तक लौट हैं या नहीं? नहीं लौटे, तो क्या आज भी ठाकुरजी की पूजा बन्द रहेगी।”

बाहर आकर संध्या बोली, “बाबू जी तो काफी देर से आ गये हैं।”

“तो फिर तालाब पर क्यों नहीं दिखे?”

संध्या अपने पिता के स्वभाव जानती थी कि वह दौड़कर किधर चले गये हैं, किन्तु सोचकर बोली, “हो सकता है कि वह आज नहाने के लिए नदी पर चले गये हों। काफी देर हो गयी है, अब तो लौटने वाले ही होंगे।”

जगदधात्री को विश्वास नहीं आया, वह और भी अधिक उतेजित हो उठी और क्रुद्ध स्वर में बोली, “तुम्हारे पिताजी से तो मैं बेहद परेशान और तंग आ चुकी हूँ। मेरी सहनशक्ति चुक गयी है। अब उन्हे कहो या तो वह कहीं चले जाये, नहीं तो मैं ही कही चलती बनूंगी। कितनी बार कहा था कि पूजारी जी आज नहीं आयेंगे। अतः जल्दी से आ जाइयेगा, किन्तु इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। बेटी, सोच, अभी तक ठाकुरजी का स्नान नहीं हुआ। जानती है, इन्होंने कल क्या किया? विराट नाई का सारा ब्याज माफ कर दिया और मूल के चुकाता होने की रसीद लिख दी।”

घबराई हुई संध्या ने पूछा, “माँ, तुम्हें कैसे पता चाल?”

जगदधात्री बोली, “भौजाई के साथ तालाब पर नहाने आई विराट की बहिन ने बताया है।” हंसकर संध्या बोली, “माँ, सुना है कि भाई-बहिन में झगड़ा चल रहा है। तुम्हें भड़काने के लिए लड़की ने झूठ बोल दिया होगा।”

रुष्ट हुई जगदधात्री बोली, “संध्या, तू सभी मामलों में अपने पिता का बचाव क्यों करती है? सारी बात सुन, घर में किसी के बीमार होने की झूठी बात बोलकर विराट नाई तेरे पिता को बुला ले गया। इन्हे धन्वन्तरी कहकर इनकी खूब आवभगत की। जमींदार और दानवीर कर्ण, कलयुग का बलि कहकर इन्हे फुला-फुलाकर कुप्पा बना दिया। उसके मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर यह लोट-पोट होते जा रहे थे। बस,. उसने मौका देखकर विनती की, और फिर क्या था जोश में आकर इन्होंने उसका मनचाहा कर दिया। पति के ऐसे पागलपन को देखकर गले में गागर बांधकर नहीं में डूब मरने का मन करता है। आजकल तो इनकी बेपरवाही की हद हो गयी है। अब बेटी, तू ही बता कि इस स्थिति में मैं किस प्रकार घर गृहस्थी चला सकती हूँ?”

संध्या ने पूछा, “माँ विराट पर कितना ऋण था?”

“ठीक से तो मैं क्यां जानूं? फिर बी दस-बारह रुपये से कुछ अधिक ही होंग। इन्हें लुटाने में कुछ सोचना थोड़ा पड़ता है।”

इसी बीच गीली धोती पहने आकर प्रियनाथ संध्या से अंगोछा देने को चिल्लाने लगे। इसके साथ ही वह संध्या को किसी रोगी के लिए कोने में पड़ी एक विशेष औषधि लाने को भी कहने लगे।

धधकती आग की तरह क्रुद्ध जगदधात्री बोली, “मैं तुम्हारे इस बक्से को कू़ड़ेदान में फेंकती हूँ। ससुर के अन्न पर पलते हो और अपने को जमींदार कहते हो! तुम्हें तो शर्म से चुल्लु-भर पानी में डूब मरना चाहिए। विराट नाई का ऋण छोड़ने के लिए तुम्हें किसने कहा था? किसकी अनुमति से तुम दूले डोम को इधर बसाने को ले आये हो? क्या तुमने हाड़-माँस जलाने का पक्का इरादा कर रखा है? इससे अच्छा तो यह है कि या तो मुझे नदी में धक्का दे दो या फिर तुम इस धर से निकल जाओ। अब मैं तुम्हें सहन नहीं कर सकती।”

संध्या उच्च और तीखे स्वर में बोली, “माँ, क्या यह दोपहरी बातें करने का समय है? थोड़ा सोच-विचार तो कर लिया करो।”

जगदधात्री भी उसी तल्खी से बोली “क्या तेरा बाप कभी सवेरे दिखाई देता है? जब आता इसी समय है, तो फिर सच-झूठ इसी समय तो कहूंगी। अपने पिता को कह दे कि ठाकुर जी की पूजा करके कुछ खा-पी ले और फिर इस घर से चलता बने। मैंने इसे सारी उम्र बिठाकर खिलाने का ठेका नहं ले रखा है। मैंने बहुत सहा है, अब और नहीं सह सकती, बिल्कुल नहीं सह सकती।” कहती हुई जगदधात्री की आँखो से आँसू टपकने लगे और वह अपने कमरे में चली गयी।

प्रियनाथ अपनी सफाई में कहा, “क्या उस नाई के बच्चे से बहुत कहा कि जमींदार होने का मतलब इतने सारे रुपये छोड़ देना थोड़े होता है, किन्तु मेरी कौन सुनता है, वह तो मेरे पैरों से लिपट गया और छोड़ता ही नहीं था। मैंने भी सोचा कि जब बेचारे के पास पेट भरने के लिए दमड़ी तक नहीं है, तो फिर ऋण का भुगतान कहां से करेगा? मैं उसे अमुक औषधि...।”

रोती बिलखती संध्या ने कहा, “ बाबू जी, माँ से परामर्श किये बिना आप ऐसे निर्णय लेते ही क्यों हो?”

“मैं कुछ न करने का निश्चय करता तो हूँ, किन्तु जब देखता हूँ कि प्रियनाथ द्वारा कुछ किये बिना गाड़ी आगे सरकती ही नहीं, तो मेरे से मुकरदर्शक बने रहना नहीं हो सकता।”

पूरी बात सुने बिना संध्या वहाँ से चल दी। सूखी धोती और अंगोछा पिता को सौपती हुई बोली, “बाबू जी, अब और देर मत करो, जल्दी से ठाकुर जी की पूजा कर लो। मैं अभी आती हूँ।”

संध्या अपने कमरे में आ गयी और सिर पोंछते हुए प्रियनाथ ठाकुर जी के कमरे में चल दिये। इस बीच पेट में फिर ऐंठन की शियकाय करते हुए वह प्राण की दवा पीने के लिए पछताने लगे।

प्रकरण 3

जगदधात्री और संध्या के सामने रासमणि जिस गोलोक चटर्जी की प्रशंसा के गीत गाते थकती न थी और जिसे साक्षात धर्मावतार और न्यायमूर्ति बताने में गौरव का अनुभव कर रही थी, वह प्रातःकालीन पूजा-पाठ से निबटकर बैठक में आ गये हैं और नौकर द्वारा रखे हुक्के को गु़ड़गु़ड़ा रहे हैं। आँख मीचकर तमाखू पीते तोंदिल बाबू ने भीतर द्वारा के खुलने की आवाज सुनी, तो बोले, “कौन?”

ओट मे खड़ी महिला बोली, “बिना खाये-पिये क्यो चले आये हो? क्या मेरी किसी गलती पर रुष्ट हो?”

गोलोक बोले, “क्रोध और अभिमान के दिन तो तुम्हारी दीदी के जाने के साथ लद गये। अब मुझे किसी पर क्रोध करने का अधिकार ही कहां हैं?”

इसी के साथ गहरी-लम्बी सांस छोड़कर वह बोले, “अच्छा, गोकुल भगवान के तिरोभाव का दिन है, अतः प्रातः उपवास करके सायंकाल को ही मेरा खाना-पीना होगा। शाम को भी थोड़ा-सा गंगाजल और दूध के सिवाय कुछ नहीं ले सकूंगा। इस तरह भगवान के ध्यान में दिन कट जाने में ही मैं अपने जीवन की सार्थकता मानता हूँ।”

ओट में खड़ी होकर बात करती स्त्री ने द्वार खोलकर निश्चित कर लिया कि कमरे में कोई तीसरा नहीं है। बेखटके भीतर चली आयी। यह स्त्री विधवा है, किन्तु इसकी आयु अधिक नहीं है और देखने में भी सुन्दर एवं आकर्षक है। चौबीस-पच्चीस साल की इस युवती ने सफेद रेशमी धोती पहन रखी है। इसने हाथों मे कंगन नहीं पहन है, किन्तु गले में सोने का हार पहन रखा है, जिसके पेण्डुलम में इसके इष्टदेव की मूर्ति है। यह स्त्री मुस्कारकर गोलोक से बोली, “आपको तो सदैव मजाक सुझता है, किन्तु आपको यह तो सोचना चाहिए कि लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? मुझे अब सदा के लिए यहाँ तो रहना नहीं है। जिसकी सेवा के लिए आयी थी, उसे तो भगवान ने अपने पास बुला लिया, अब मुझे अपने बूढ़े सास-ससुर की सेवा भी तो करनी है, इसके लिए अपने गाँव लौटना है।”

गोलोक हुक्का। गुड़ग़ुड़ाते हुए गंभीर स्वर में बोले, “अपनी घर गृहस्थी के लिए रिश्ते-नाते की किसी को बलपूर्वक रोककर नहीं रखा जा सकता है। यदि अपना भाग्य ही फूटा न होता, असमय में गृहलक्ष्मी ही क्यों दगा दे जाती? मधुसूदन, मधुसूदन! ठीक है, जाना चाहती है, तो चली जाना। बहिन की सेवा तुमने जी-जान से की है, इसके लिए तुम गाँव में दृष्टान्त स्थापित कर चली हो।”

ज्ञानदा चुप रही और गोलोक ने धोती के पल्लू से अपनी आँखें पोंछी और फिर वह चुपचाप हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। थोडी़ देर बाद वह गंभ्भीर स्वर में बोले, “सती लक्ष्मी, इतने दिन लेकर आयी थी, सो चली गयी, उसके लिए दुःख करना व्यर्थ है, किन्तु मेरी घर-गृहस्थी तो उजड़ गयी। सारी लड़कियां अपने ससुराल में अपना घर संभाल रही हैं, उनका मुझे कोई चिन्ती नहीं, किन्तु चिन्ता है, तो ईस छोटे बच्चे की है। यह बिना माँ का लड़का कैसे जी पायेगा? इसे कौन संभालेगा? केवल इसी की चिन्ता है।”

रुंधे गले से ज्ञानदा बोली, “आप इतना अधिक घबराते क्यों है? इसकी भी कोई व्यवस्था हो जायेगी।”

उदास और बुझे स्वर में गोलोक ने कहा, “यही तो नहीं हो रहा, मधुसूदन, तुमहारा है सहारा है। अब मेरा मन न तो घर-गृहस्थी में आरो न ही जमींदार में रमता है। सब कुछ विष-सा लगता है। जितने दिन जीना पड़े, व्रत-उपवास और भोजन-पूजन में बीते-यही एकमात्र इच्छा है। एक समय मुट्ठी-भर भात मिल जाये, तो ठीक, न मिले, तो ठीक, किन्तु उस नन्हें का ध्यान आते ही प्राणों पर बन आती है। मधुसूदन! तुम्हारा ही भरोसा है।”

ज्ञानदा की आँखे भी अश्रुपूर्ण ही उठी। गोलोक की स्त्री उसकी ममेरी बहिन होने पर भी सगी-बहिन-जैसी थी। दोनों में गहरा अनुराग था। इसीलिए अपनी असाध्य बीमारी में उसने ज्ञानदा को अपने पास बुलाया था और ज्ञानदा बी काम छोड़कर भागी चली आयी थी। रुग्णा की सेवा में उसने दिन-रात एक कर दिया था। किन्तु उसे बचा न सकी। जाते समय लक्ष्मी अपने दस साल के बेटे को अपनी इस बहिन की गोद में डाल गयी।

रुंधे गले से ज्ञानदा बोली, “मेरा यहाँ सदा के लिए रहना तो नहीं सकेगा। लोग-बाग क्या कहेंगे, जरा यह भी तो सोचिये।”

“इस गाँव में किसी को तुम्हारे विषय में मुंह खोलने की हिम्मत होगी, तो कोई कुछ कहेगा।” इससे अधिक भला यहा कहते और किसी प्रकार ज्ञानदा को आश्वस्त करते? स्वयं ज्ञानदा भी इस गाँ मे गोलोक के प्रभाव से भली प्रकार परिचित थी।

गोलोक बोले, “इस गाँव किसी आदमी द्वारा मेरी आलोचना करने का अर्थ होगा-अपना राशन-पानी समाप्त समझना। अतः यहाँ के लोगों द्वारा कुछ कहे जाने के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं। तुम्हारी बहिन तुम्हे बहुत चाहती थी, इसका प्रमाण यह है कि मरेत समय यह अपनी सन्तान तुम्हे सौंप गयी। मुझे भी तो सौप सकती थी।”

अपने आंसुओं को बलपूर्वक रोकती हुई ज्ञानदा बोली, “जीजा जी, यह सब तो ठीक है, किन्तु आप भी तो देखिये कि मेरे बूढ़े सास-ससुर जीवित है और मेरे सिवाय उनकी सेवा करने वाला दूसरा कोई नहीं हैं।”

ज्ञानदा को कथन को महत्व ने देते हुए गोलोक ने बड़ी उपेक्षा से कहा, “अरी, तेरह साल में विधवा हुई, पति को अपनी आँखो से देखा तक नहीं और फिर वह जीवित भी नहीं, फिर भी उसके माँ-बाप के प्रति अपने कर्तव्य की दुहाई देती हो। काहे का तुम्हारा कर्तव्य? छोड़ो इस बेकार की बात को।”

“जीजा जी, पति न रहने पर जीते-जी उनके माता-पिता की सेवा के कर्तव्य से मुक्त तो नहीं हो जाती।”

कुछ देर तक चुप रहने के बाद गभ्भीर स्वर में गोलोक बोले, “तो फिर ठीक है, हमें भगवान के भरोसे छोड़कर चली जाओ, किन्तु छोटी मालकिन, एक बात मत भूलना।”

“छोटी मालकिन” सम्बोधन पर नाराजगी प्रकट करती हुई ज्ञानदा बोली, “जीजा जी, क्यो आप मेरी खिल्ली उड़वाने पर तुले हुए हो? लगा सुनकर मुस्कराते हैं। क्या आप मुझे मेरे नाम से नहीं पुकार सकते?”

“ठीक है नाम लेकर पूकारूंगा।”

यह कहते हुए गोलोक के उज्जवल चेहरे पर विषाद की काली छाया धिर आयी। एक लम्बी आह भरकर अपने को सुनाते हुए-से धीमी आवाज में गोलोक बोले, “जिसकी छाती दिन-रात प्रचण्ड धधक रही हो, क्या वह कभी किसी से मजाक कर सकता है? मेरे सम्बन्ध में हंसी-मजाक की बात करना, तो मुझ पर मिथ्या आरोप लगाना होगा। फिर भी, कभी-कभी, खैर जाने दो, किसी को नाराज करने का क्या लाभ हैं? आज तक, जब किसी को भी अप्रसन्न करने से बचता रहा हूँ, तो आज फिर ऐसी मुर्खता किसलिए? मैं जानता हूँ कि जीवन कांटो पर चलना है, विषय-भोगों का परिणाम भंयकर है, संसार भी तो दुःखो का घर है। प्रभो, मधुसूदन, मुझे कब अपने चरणों में स्थान दोगे? कब कष्टों से मुक्ति दिलाओगे?”

बिलखती और आँसू बहाती ज्ञानदा चुपचाप देखती रही।

गोलोक बोल, “देखो ने छोटी मालकिन, लड़की वाले पीछे पड़े हैं, उनका तर्क भी सही है कि दस साल का बच्चा बिना माँ के कैसे पलेगा? फिर मेरा शेष जीवन भी बिना गृहस्वामिनी कैसा कटेगा? बाल सफेद अवश्य हो गये है, किन्तु ये मेरी आयु बड़ी होने के सूचक नहीं, अपितु दुःख-शोक की अधिकता के ही सूचक है, इसलिए असमय में ही सफेद हो गये हैं। फिर भी, मुझे दोबारा बन्धन में पड़ना अच्छा नहीं लगता, किन्तु बिना इसके निर्वाह भी तो नहीं। मेरे लिए एक और खाई है, तो दूसरी और कुंआ है।”

उदास चेहरे से नकली हंस हंसती हुई ज्ञानदा बोली, “इसमे सोचना-विचारने की क्या बात है, विवाह कर ही लीजिये।”

“अरी, तुम क्या कहती हो, इस आयु में विवाह कर लूं? तुम-जैसी लक्ष्मी क् रहेत क्या मैं इस बारे में सोच भी सकता हूँ? हाँ, एक बात है, साली को बिना कोई नाम दिये सदा के लिए घर में रखा भी नहीं जा सकता। तुम्हारी बहिन तो तुम्हे अपनी इच्छा बता ही गयी है। तुम उसके वचन का मान रख लो।”

किसी को भीतर झांकते देखकर गोलोक ने पूछा, “कौन है?”

नौकर ने सूचित किया, “चोंगदरा साहब आये हैं।”

मुंह बिगाड़कर गोलोक ने कहा, “अब काम-धन्धे मन कहा लगता है। दिन-रात काम, पैसा, बहुत हो लिया, मैं किसे अपनी छाती फाड़कर दिखाऊं कि कैसी प्रचण्ड ज्वाला धधक रही है। मधुसूदन! कब इस झंझट से मुक्त करोगे।” फिर नौकर की ओर उन्मुख होकर वह बोले, “खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है? जा, उसे भीतर आने को कहा।”

ज्ञानदा उठ खड़ी हुई और जाने से पहले पूछने लगी, “तो क्या सचमुच कुछ नहीं खाओगे?”

ज्ञानदा बोली, पर्व है, तो क्या हुआ? थोड़ा-सा दूध, फल और गंगाजल लेने में कोई दोष नहीं। आप जल्दी से आइये, मैं सब कुछ तैयार करती हूँ।” कहती हुई ज्ञानदा दरवाजा बन्द कर चली गयी।

इधर नौकर के पीछे एक शरीफ आदमी सामने के द्वार से कमरे में प्रविष्ट हुआ। गोलोक ने हंसकर उसका स्वागत किया और उसे अपने पास बिठाया। नौकर को आदेश किया, “भोलू, शुद्रों वाला हुक्का तैयार करके इनके आगे पेश कर।”

गोलोक के चरण-स्पर्श करके लम्बी सांस छोड़ता हुआ विष्णु चोंगदार बोला, “बड़े बाबू, क्या पूछते हो, सांस लेकने की फूरकत नहीं। बड़ा भारी झंझट है, फिर भी पाँच सौ और तीन सौ की दो खेपें तो किसी तरह भिजवा दी हैं।”

दक्षिणी अफ्रीका में सेना की खुराक के लिए भेड़-बकरियों की आपूर्ति में यह चोंगदार मुखर्जी बाबू का हिस्सेदार है। ठेके की शर्त के अनुसार इन्हें तीन हजार पशु भेजने हैं। अतः आठ सौ संख्या सुनकर गोलोक चिन्तित हो उठे और बोले, “तीन हजार ठेका और कुल आठ सौ की आपूर्ति! कैसी बात करते हो?”

चिन्तित स्वर में चोंगदार बोला, “बाबू साहब, भेड़-बकरियां मिलती ही नहीं, तो क्या किया जाये? आठ-सौ को जुटाने में भी नाक में दम आ गया। हाँ, रामपुर में हरेन ने पाँच-सात दिु में लगभग सौ पशु रेल से भेजने का विश्वास दिलाया है। हमें तो सिर्फ रेलगाड़ी से पशुओं को उतारना है और जहाज पर चढ़ाना है। तीन महीने का समय मिला हुआ है। अतः अभी से काहे चिन्ता? सब ठीक हो जायेगा।”

आश्वस्त होकर गोलोक ने कहा, “बन्धु, मझे तो तुम्हारा ही भरोसा है। मेरी अवस्था तो अब तुम जानते ही हो। मैं तो गृहस्थ होते हुए भी एक प्रकार से सन्यासी हूँ। तुम्हारी भाभी के चले जाने के बाद रुपये-पैसे में मोह ही नहीं रहा। मैं तो केवल उस अबोध बालत के लिए जी रहा हूँ।”

चोंगदार बोला, “यह सब तो स्वाभाविक है। इस बार रुपया तो अहमद कमायेगा। ससुरे को सात सौ का ठेका मिला है। वह और बी बड़ा ठेका ले सकता था, किन्तु रुपये का जुगाड़ नहीं कर सका।”

“धीमे-से गोलोक ने पूछा,“क्या उसे भैंसों का ठेका मिला है?”

“हाँ, और क्या? भेड़-बकरियों का सौदा होता, तो क्या मैं हाथ से जाने देता?”

मुंह पर हाथ रखकर, राम-राम, शिव-शिव कहते हुए गोलोक ने कहा, “सुबह-सबह एसी चर्चा ठीक नहीं। वह म्लेच्छ है, धर्म-अधर्म कुछ भी नहीं जानता, कमाने दो। क्या दस हजार कमा लेगा?”

“इससे कही ज्यादा। यदि लड़ई लम्बी खिंच गयी. तो लाला के वारे-न्यारे हो जायेंगे।”

गोलोक ने कहा, “उसे लगाना भी तो बहुत पड़ेगा? लगता है कि ठेके के दस्तावेज दिखाकर किसी लाला से कर्ज ले लेगा।”

चोंगदार बोला, “होने को तो सब हो सकता है। मुझसे तो कह भी रहा था...।”

जानने के उत्सुक गोलोक ने पूछा, “कितना रुपया मांग रहा था? क्या सूद के बारे में भी उसने कुछ बताया था?”

चोंगदार बोला, “चार पैसा तो निश्चित है, शायद इससे अधिक भी...।”

गोलोक बिड़ाकर बोला, “खुद तो एक के दो करेगा और सूद इतना थोड़ा देगा?” हाँ, यदि वह दस आना और छः आना (आज की भाषा में साठ प्रतिशत और चालीस प्रतिशत) की साझेदारी पर काम करना चाहे, तो उसे मेरे पास आने को कह देना।”

आशंकित चोगदार बोला, “क्या आप रुपया देंगे? यदि राज खुल गया तो...।”

गोलोक एकदम सावधान हो गया। संभलकर बोला, “मधुसूदन, रक्षा करो। मैं भी कहां बहक गया था? मैं रुपया क्यों देने लगा? उलये मांगे, तो बी मना कर दूंगा। राज खुलने वाली बात की चिन्ता भी मत करो। उसके और तुम्हारे सिवाय किसी को भी भनक क्यो पड़ने लगी? अच्छा, एक बात सोचो, बनिये से उधार लेकर कोई लड़की का ब्याह रचाये, मामला-मुकदमा करे या रण्डी नचाये, इससे लाला को क्या करना है? उसे तो केवल अपने रुपया लेके से ही गरज है, इसलिए सोचता हूँ कि मैं उस रुपया नहीं दूंगा, तो कोई दूसरा दे देगा। किसी का काम तो रुकता नहीं है।”

चोंगदार के मन के भाव को भांपने के लिए कुछ देर तक उसे चेहरे को ताकने के बाद गोलोक मुखर्जी बोले, “मैं रुपया देने की बात नहीं कर रहा था मैं तो एक साधारण प्रचलन की बात कर रहा था। वस्तुतः महाजन को भी आसामियों की आवश्यकता पड़ती है। मेरे बारे में तो तुम प्रारंभ से जानते ही हो कि ब्राह्मण का बेटा अपने धर्म-कर्म, सिद्धान्त और न्याय आदि के विषय में किनता दृढ़ है। अधर्म के लाख रुपये पर बी मेरी दृष्टि ही नहीं पड़ती। भगवान मधुसूदन पर आस्था रखने के कारण ही आज मैं पाँच-पाँच गाँ का अधिष्ठाता हूँ। एक ही वाक्य ब्राह्मण को शुद्र और शुद्र को ब्राह्मण बनाने का सामर्थ्य रखता हूँ। मधुसूदन, तुम्हारा ही भरोसा हैष एक बार जब बीमार पड़ा था, तब डॉक्टर जयगोपाल के सोडावाटर पीने के सुझाव को ठुकराते हुए मैंने साफ कहा था, मरने से डरकर जीवित रहने के लिए गोलोक अधर्म-मार्ग पर कभी भूलकर भी पैर नहीं रखेगा। मैं उन केनाराम का बेटा और हरराम मुखर्जी का धेवता हूँ, जिनके चरणोदक को पीने के लिए भण्डार हाटी के राजा को पालकी और सेवक भेजने पड़ते थे।”

प्रणाम करके उठ खड़ा हुआ चोंगदार बोला, “इसमें क्या संदेह है? आपकी कुलीनता और आचारनिष्ठा के तो संसार में डंके बजते हैं।”

प्रसन्न हुआ गोलोक लम्बी सांस लेकर बोला, “मधुसूदन, तेरा ही भरोसा है।”

जाते हुए चोंगदार को अपने पास बुलाकर गोलोक ने उसे अपने समीप बुलाकर धीरे-से कहा, “हाँ, हरेन से रेलवे की रसीद मांग लेना।”

स्वीकृति में सिर हिलाकर चोंगदार बोला, “जी, हुजूर!”

गोलोक बोला, “पाँच सौ, जमा तीन सौ, जमा पाँच सौ कुल मिलाकर हुए तेरह सौ और शेष रहे सत्रह सौ। बची अवधि में सप्लाई हो जायेगी न?”

गोलोक गोल, “इसीलिए तुम्हें मैंने पूरे पाँच हजार का ठेका लेने की सलाह दी थी, किन्तु तुम्हें अपने ऊपर भरोसा ही नहीं था।”

चोंगदार बोला, “यदि इतने पशु न जुटा पाता तो...।”

गोलोक ने विवाद करना ठीक न समझते हुए कहा, “चलो, जो सोचा, वही ठीक है। धर्म-मार्ग पर चलकर, तनाव लिए बिना जो मिले, उसे ही बहुत समझना चहिए। अधर्म से लाखों का मिलना भी गलत है। मधुसूदन, तेरा ही भरोसा है।”

चोंगदार के चले जाने पर ढ़ोगी मुखर्जी हुक्का गुड़गड़ाने लगे। इस बीच नौकरानी ने आवाज दी, “मौसी जी कब से प्रतीक्षा में बैठी हैं।”

“क्यों, सद्दी, क्या काम है उसे मुझसे?”

नौकरानी बोली, “थोड़ा-सा जलपान कर लेते तो...।”

हुक्का छोड़कर उठते हुए गोलोक ने कहा, “तेरी मौसी ने भी नाक में दम कर रखा है। उसका हुकुम माने बिना निर्वाह नहीं।”

लम्बी सांस छोड़ते हुए वह बोले, “गृहस्थ रहते हुए साधना करना कितना कठिन है? मधुसूद, तुम्हीं मार्गदर्शन करो, तुम्हारा ही सहारा है।”


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